Natasha

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राजा की रानी

असम्भव नहीं है। देखा, कि दक्षिण की हवा की वजह से देशभर की सूखी हुई लताओं और पत्तों ने गवाक्ष-पथ से भीतर घुसकर कमरे को भर दिया है, तख्त को भी छा दिया है। फर्श पर पैर पड़ते ही शरीर सनसना उठा। खाट के पाये के पास चूहे ने अपना बिल बनाकर मिट्टी जमा कर रक्खी है। मैंने उसे दिखाकर कहा, “गौहर, कमरे में तुम लोग क्या कभी झाँकते भी नहीं?”


गौहर ने जवाब दिया, “नहीं, जरूरत ही नहीं पड़ती। मैं अन्दर ही रहता हूँ। कल सब साफ करा दूँगा।”

“साफ तो हो जाएगा, लेकिन इस बिल में साँप भी तो रह सकते हैं?”

नौकर ने कहा, “दो थे, लेकिन अब नहीं हैं। ऐसे दिनों में वे नहीं रहते, हवा खाने के लिए बाहर चले जाते हैं।”

पूछा, “यह कैसे मालूम हुआ मियाँ?”

गौहर ने हँसते हुए कहा, “यह मियाँ नहीं है, अपना नवीन है। पिताजी के जमाने का आदमी है। गाय-भैंस, खेती-बारी देखता है और मकान की हिफाजत भी करता है। हमारे यहाँ क्या है, और क्या नहीं है, इसे सब पता है।” नवीन बंगाली हिन्दू है और है पिता के जमाने का आदमी। इस घर की गाय-भैसें, खेती-बारी से लेकर मकान तक का सारा हाल जानना उसके लिए असम्भव नहीं है। तथापि साँप के बारे में उसकी बातों से निश्चिन्त न हो सका। यहाँ तो मकान-भर को दक्षिणी हवा लग गयी है! सोचा, इसमें शक नहीं कि हवा के लोभ में सर्प-युग्ल बाहर जा सकते हैं, परन्तु, उन्हें लौटते भी कितनी देर लग सकती है?

गौहर ने ताड़ लिया कि मुझे तसल्ली नहीं हुई है। कहा, “तुम तो खाट पर रहोगे, फिर तुम्हें डर किस बात का? इसके अलावा वे कहाँ नहीं रहते? भाग्य में लिखा था, इससे राजा परीक्षित को भी रिहाई नहीं मिली, फिर हम तो तुच्छ हैं। नवीन, कमरे में झाडू लगाकर एक ईंट से बिल को ढक देना, भूलना नहीं। पर श्रीकान्त, कहो तो, तुम खाओगे क्या?”

मैंने कहा, “जो कुछ मिल जाए।”

नवीन बोला, “दूध, चिवड़ा और अच्छी ईख का गुड़ है। आज के लायक-”

मैंने कहा, “ठीक है, ठीक है। इस मकान में ये ही चीजें खाने की मुझे आदत है, और कुछ जुटाने की जरूरत नहीं, भाई। बल्कि, तुम कहीं से एक हल्की ईंट ले आओ। बिल को मजबूती से ढक दो, जिससे दक्षिण की हवा से पेट भरकर जब वे घर लौटें तो फिर एकाएक इसमें न घुस सकें।” हाथ में रोशनी लेकर नवीन कुछ देर तक तख्त के नीचे झाँकता रहा। फिर बोला, “नहीं, नहीं हो सकता।”

“क्या नहीं हो सकता जी?”

उसने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं हो सकता। बिल का मुँह क्या अकेला है बाबू? पजाबा-भर ईंटें चाहिए। चूहों ने जमीन को एकबारगी पोला कर डाला है।”

गौहर विशेष विचलित न हुआ। उसने आदमी लगाकर कल अवश्य मरम्मत करा देने का हुक्म दे दिया।

नवीन हाथ पैर धोने के लिए पानी देकर फलाहार का आयोजन करने जब भीतर चला गया तो मैंने पूछा, “और तुम क्या खाओगे गौहर?”

“मैं? मेरी एक बूढ़ी मौसी हैं, वे ही खाना बनाती हैं। खैर, यह खाना-पीना खत्म हो जाए तो अपनी रचनाएँ तुम्हें सुनाऊँ।” वह अपने काव्य के ध्या न में ही मग्न था। अतिथि के आराम और सुविधा का खयाल शायद उसने किया ही नहीं। बोला, “बिछौना बिछा दूँ, क्या कहते हो? रात को हम दोनों एक साथ ही रहेंगे-क्यों?”

यह एक और आफत आई। कहा, “नहीं भाई गौहर, तुम अपने कमरे में जाकर सोओ। आज मैं बहुत थका हुआ हूँ, कल सुबह ही तुम्हारी रचना सुनूँगा।”

“कल सुबह? तब क्या वक्त रहेगा?”

“अवश्य रहेगा।”

गौहर चुप होकर कुछ सोचता रहा। बोला, “अच्छा श्रीकान्त, एक काम किया जाए तो कैसा हो! मैं पढ़ता हूँ और तुम लेटे-लेटे सुनते रहना। नींद आने पर मैं चला जाऊँगा। क्या कहते हो? यह ठीक है न- क्यों?”

मैंने विनती करते हुए कहा, “नहीं भाई गौहर, इससे तुम्हारी किताब की मर्यादा नष्ट होगी। कल मैं पूरा ध्या-न लगाकर सुनूँगा।”

गौहर ने क्षुब्ध चेहरे से बिदा ली, पर बिदा करके मेरा मन भी प्रसन्न नहीं हुआ।

यह एक ही पागल है। पहले इसके इशारों से तो मैंने यही समझा था कि अपने काव्य-ग्रन्थ को वह प्रकाशित करना चाहता है और उसे आशा है कि उससे संसार में एक धूम मच जायेगी। वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। पाठशाला और स्कूल में उसने सिर्फ थोड़ी-सी बंगला और अंगरेज़ी सीखी थी। इच्छा भी नहीं थी, और शायद समय भी नहीं मिला। शैशव में न जाने कब और कैसे वह कविता से प्रेम कर बैठा। सम्भव है कि वह प्रेम उसकी शिराओं के खून में ही बह रहा हो-इसके बाद संसार का सब कुछ उसकी नजरों में अर्थहीन हो गया है। अपनी अनेक रचनाएँ उसे याद हैं। गाड़ी में बैठा हुआ बीच-बीच में वह गुनगुनाकर आवृत्ति भी करता था। उस वक्त सुनकर यह नहीं सोचा था कि इस अक्षय भक्त को वाग्देवी अपने स्वर्ण-पद्म की एक पंखुड़ी देकर किसी दिन पुरस्कृत करेंगी। पर अक्लान्त आराधना के एकाग्र आत्म निवेदन में इस बेचारे को विराम नहीं, विश्राम नहीं। बिछौने पर लेटा हुआ सोचने लगा कि बारह साल बाद मुलाकात हुई है। इन बारह वर्षों से उसने सब पार्थिव स्वार्थों को जलांजलि देकर और एक रचना के बाद दूसरी गूँथ करके श्लोकों का पहाड़ जमा कर लिया है। पर यह सब किस काम में आयेगा? जानता हूँ कि काम में नहीं आएगा। गौहर आज नहीं है पर उसकी दुश्चर तपस्या की अकृतार्थता स्मरण कर आज भी मन दुखी होता है। सोचता हूँ कि न जाने कितने शोभाहीन, गन्धहीन फूल लोक-चक्षुओं के अन्तराल में खिलते हैं और फिर अपने आप ही मुरझा जाते हैं। परन्तु, विश्व-विधान में यदि उनकी कोई सार्थकता है, तो शायद गौहर की साधना भी व्यर्थ नहीं हुई होगी।

गौहर ने बहुत सबेरे ही पुकारकर मेरी नींद खोल दी। तब शायद सात बजे थे, या न भी बजे हों। उसकी इच्छा थी कि वसन्त के दिनों में बंगाल के निभृत गाँवों के लोकोत्तर शोभा-सौन्दर्य को अपनी ऑंखों से देखकर धन्य होऊँ। उसका भाव कुछ ऐसा था कि मानो मैं विलायत से लौटकर आया हूँ। उसका आग्रह पागलों जैसा था। अनुरोध टालने का उपाय नहीं था। अतएव हाथ-मुँह धोकर तैयार होना पड़ा। प्राचीर से सटे हुए एक अधमरे जामुन के पेड़ के अधिक हिस्से में माधवी और अधिक में मालती लता लिपटी थी। यह कवि की अपनी योजना है। अत्यन्त निर्जीव शकल-तथापि, एक में थोड़े से फूल खिले हैं और दूसरी में अभी कलियाँ फूटी हैं। उसकी इच्छा थी कि थोड़े से फूल मुझे उपहार दे, पर पेड़ में इतने लाल चींटे थे कि छूने का कोई उपाय नहीं सूझा। उसने मुझे यह कहकर सान्त्वना दी कि कुछ देर बाद उन्हें ऑंकड़ी से अनायास ही झड़ा दिया जायेगा। अच्छा, चलो।

प्रात:क्रिया ठीक तौर से निष्पन्न हो सके (अर्थात् कब्ज न रहे,) इसके उद्योग-पर्व में नवीन चिलम हाथ में लिये दम लगाकर बड़े जोर से खाँस रहा था। थूककर, खखारकर और बहुत कुछ सँभालकर हाथ हिलाकर उसने मना किया। कहा, “जंगल में कहीं गायब मत हो जाइएगा, कहे देता हूँ।”

गौहर ने नाराजगी से कहा, “क्यों रे?”

नवीन ने जवाब दिया, “कोई दो-तीन सियार पागल हो गये हैं; ढोर-आदमियों को काटते डोल रहे हैं।”

मैं डर के मारे पीछे हट गया।

“कहाँ रे नवीन?”

“यह क्या मैंने देखा है कि कहाँ हैं? कहीं-न-कहीं झाड़ी-आड़ी में छिपे होंगे। अगर जाते हो तो ऑंखें खोलकर जाना।”

“तो भाई, जाने का काम नहीं गौहर।”

“वाह रे! इस वक्त कुत्ते और सियार जरा पागल हो ही जाते हैं- सिर्फ इसी वजह से क्या लोग रास्ता चलना बन्द कर देंगे? खूब कहा।”

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